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Robert K. Merton
रॉबर्ट किंग मर्टन (जन्म Meyer Robert Schkolnick; 4 जुलाई 1910 — 23 फरवरी 2003) एक प्रमुख अमेरिकी समाजशास्त्री थे जिन्होंने खासतौर पर विज्ञान का समाजशास्त्र (Sociology of Science), अनॉमी/अपवंचना (strain/deviance theory) और सामाजिक सिद्धान्त (sociological theory) में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अधिकांश करियर Columbia University में बिताया और 1994 में उन्हें National Medal of Science से सम्मानित किया गया।
शैक्षिक-व्यावसायिक पृष्ठभूमि
मर्टन का जन्म फिलाडेल्फिया में हुआ; उन्होंने Temple University से BA और Harvard University से MA तथा PhD प्राप्त की। 1930 के दशक से वे अकादमिक स्तर पर सक्रिय रहे — Harvard, Tulane और अंततः Columbia University जहाँ उन्होंने कई दशक तक पढ़ाया और शोध किया।
मर्टन का वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विशेष रूप से “मध्य-स्तरीय सिद्धांत” (Middle-Range Theories) और संरचनात्मक-प्रकार्यात्मकता (Structural-Functionalism)
मर्टन ने पारसंस के बड़े-परिमाण (grand theory) वाले दृष्टिकोण का आन्तरिक आलोचनात्मक सुधार किया। उनका तर्क यह था कि समाजशास्त्र के पास अभी इतना विशाल अनुभवजन्य डेटा नहीं है कि किसी सर्व-व्यापक सिद्धांत (grand theory) को समुचित रूप से ऊँचा बनाया जा सके। इसलिए उन्होंने मध्य-स्तरीय सिद्धान्त (middle-range theories) का प्रस्ताव रखा — वे ऐसे सिद्धान्त जो विशेष सामाजिक घटनाओं/प्रक्रियाओं को लक्ष्य करके बनाए जाएँ, प्रयोगात्मक रूप से जाँचे जा सकें और धीरे-धीरे बड़े फ्रेमवर्क में मिलकर व्यवस्थित हों। यह मर्टन की सबसे प्रभावशाली methodological देनों में से एक है।
अर्थ और महत्त्व
- Grand theory बनाम Middle-range: Grand theory = बहुत सामान्य, व्यापक; Middle-range = विशेष, परीक्षणीय, व्यावहारिक।
- मर्टन का उद्देश्य: सिद्धान्त को अधिक प्रयोगात्मक, परखने योग्य और अनुसंधान-उपयुक्त बनाना।
प्रमुख अवधारणाएँ और योगदान
1) प्रकट प्रकार्य और प्रच्छन्न प्रकार्य (Manifest & Latent Functions)
- प्रकट प्रकार्य (Manifest functions): संस्थाओं/क्रियाओं के वह उद्देश्य जिनका प्रत्यक्ष ज्ञान व उद्देश्य प्रतिभागियों को होता है (उदा. विद्यालय का शैक्षिक उद्देश्य)।
- प्रच्छन्न प्रकार्य (Latent functions): वे परिणाम/प्रभाव जो न तो जाने जाते हैं और न ही लक्षित; पर समाज में उनका प्रभाव होता है (उदा. स्कूलों का सामाजिक नेटवर्क बनाना, विवाह बाजार पर प्रभाव)।
- मर्टन ने साथ ही दुष्प्रकार्य (dysfunctions) की धारणा दी — कुछ सामाजिक संस्थाएँ समग्र प्रणाली के लिए हानिकारक प्रभाव भी ला सकती हैं; इससे प्रकार्यात्मक विश्लेषण में सामाजिक परिवर्तन (Social Change) और संघर्ष (Conflict) के तत्वों को समाहित करने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
2) प्रकार्यात्मक विकल्प (Functional Alternatives)
पारसंस आदि ने कुछ सामाजिक प्रकार्यों को अनिवार्य मान लिया—मर्टन ने कहा कि किसी भी प्रकार्य के लिए कई वैकल्पिक संस्थाएँ/प्रथाएँ मौजूद हो सकती हैं। अर्थात् एक ही सामाजिक आवश्यकता को पूरा करने के लिए कई विकल्प संभव हैं — इसलिए किसी एक संगठन की उपस्थिति स्वतः ही उसकी अपरिहार्यकारीता सिद्ध नहीं करती। इससे functionalism की “status-quo का समर्थन” वाली व्याख्या नरम पड़ती है।
3) अनपेक्षित परिणाम (Unintended consequences) और आत्म-साक्ष्य (Self-fulfilling prophecy)
- मर्टन ने सामाजिक क्रियाओं के अनपेक्षित परिणाम पर लिखा — यानी कोई उद्देश्यपूर्ण कार्रवाई ऐसे नतीजे भी दे सकती है जो करने वालों ने सोचे न हों। (यह विचार मर्टन के व्यापक कार्यों में बार-बार आता है)।
- Self-fulfilling prophecy — एक ऐसी धारणा/विश्वास जो प्रारम्भ में मिथ्या हो पर उस पर किए गए व्यवहार की वजह से सच बन जाती है — यह भी मर्टन की लोकप्रिय अवधारणाओं में है।
4) अनॉमी/विकृति (Strain/Deviance theory)
मर्टन ने Durkheim की अनॉमी की परंपरा से जुड़ते हुए यह विश्लेषण दिया कि सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक लक्ष्यों के बीच असंतुलन (strain) किस तरह व्यक्तियों को व्यावहारिक अनुकूलन (conformity), नवाचार (innovation),ritualism, retreatism या rebellion जैसी प्रतिक्रियाओं की ओर धकेलता है — यह सिद्धान्त मिडल-रेन्ज दृष्टिकोण के उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक है।
5) समाजशास्त्र का विज्ञान (Sociology of Science) — Mertonian norms और Matthew effect
- मर्टन ने विज्ञान के सामाजिक संगठन का व्यवस्थित अध्ययन किया और वैज्ञानिक व्यवस्था के नॉर्मेटिव सिद्धांत (जैसे communalism, universalism, disinterestedness, organized scepticism — संक्षेप में CUDOS) की पहचान की कि किस तरह आदर्श रूप में विज्ञान समाज के हित में ज्ञान उत्पादन करता है। परन्तु उनके काम ने यह भी दिखाया कि वास्तविक विज्ञान इन आदर्शों से अलग चल सकता है।
- Matthew Effect (1968/1957 का शोध-विचार): प्रसिद्ध वैज्ञानिकों/प्रसिद्ध संस्थानों को असल में किए गए योगदान से भी अधिक मान्यता और पुरस्कार/संसाधन मिलते हैं; जबकि कम प्रसिद्धों का योगदान दब सकता है — इसे मर्टन ने Matthew effect नाम दिया। यह विज्ञान के पुरस्कारतंत्र और संसाधन वितरण की असमानता पर गहन प्रकाश डालता है।
6) अन्य सैद्धान्तिक योगदान — reference groups, role model, role strain, obliteration by incorporation आदि
मर्टन ने कई उपयोगी अवधारणाएँ दीं: reference group (जिसके मानदण्डों की तुलना में व्यक्ति अपना व्यवहार तय करता है), role strain (एक ही भूमिका के अंदर दबाव/विरोधाभास), और obliteration by incorporation (किसी विचार के सामान्य हो जाने पर उसके स्रोत की उपेक्षा) आदि — ये आज भी समाजशास्त्रीय विश्लेषण में व्यापक रूप से प्रयुक्त हैं।
मर्टन की पद्धति — संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक (Structural-Functional)
मर्टन ने पारंपरिक प्रकार्यवाद को पूर्ण रूप से नहीं छोड़ा; पर उसने इसे ज्यादा विश्लेषणात्मक, परीक्षणीय और परिवर्तन-सक्षम बनाया — वह पारसंस की तुलना में अधिक संशोधनशील थे: उन्होंने ‘स्थैतिकता (statics) और संरचना (structure)’ के सैद्धान्तिक उपयोगों का संयमित प्रयोग किया और सामाजिक स्थिरता के साथ-साथ परिवर्तन (dynamics) के तंत्र भी स्पष्ट किए। इसीलिए मर्टन को अक्सर Parsons का ‘संशोधक-शिष्य’ कहा जाता है — पर वे Parsons के विचारों पर काफी आलोचनात्मक भी रहे।
आलोचनाएँ (Criticisms)
मर्टन की आलोचना मुख्यतः निम्न बिंदुओं पर हुई है:
- स्थितिवाद (conservatism) का आरोप: कुछ आलोचक कहते हैं कि प्रकार्यवाद स्वाभाविक रूप से status-quo को ज्यादा मान्यता देता है; हालाँकि मर्टन ने dysfunction और functional alternatives से इसे कुछ हद तक टाला, आलोचना बनी रही।
- सैद्धान्तिक जटिलता और भारतीय/विकासशील समाजों पर सीमाएँ: कुछ ने कहा कि मिडल-रेन्ज सिद्धान्तों के बावजूद मर्टन का ढाँचा पश्चिमी, औद्योगिक समाजों के अध्ययन के लिए ज्यादा उपयुक्त दिखता है।
- नैतिक/राजनीतिक पक्ष: कुछ आलोचक मर्टन को परिवर्तन-विरोधी और पूँजीवाद के समर्थक के रूप में चित्रित करते हैं — पर यह आलोचना आंशिक और विवेचित है; मर्टन के लेखन में परिवर्तन, विरोध और दुष्प्रकार्य की मान्यता स्पष्ट है।
मर्टन की विरासत (Legacy)
- मर्टन ने समाजशास्त्र को अधिक प्रयोगात्मक और सिद्धान्त-समर्थक दिशा दी; उनकी middle-range methodology आज भी सैद्धान्तिक निर्माण की मार्गदर्शिका मानी जाती है।
- उनकी अवधारणाएँ (manifest/latent functions, self-fulfilling prophecy, Matthew effect, reference group आदि) समकालीन समाजशास्त्र, संचारशास्त्र, शिक्षा और विज्ञान नीति अध्ययन में व्यापक रूप से प्रयोग होती हैं।
- उनकी प्रमुख कृतियाँ और लेख-संग्रह आज पाठ्यक्रमों में अनिवार्य हैं और International Sociological Association ने उनकी पुस्तक Social Theory and Social Structure को 20वीं सदी की महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में सूचीबद्ध किया।
रॉबर्ट के. मर्टन ने समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के निर्माण में व्यवहारिकता, परीक्षण-योग्यता और सैद्धान्तिक लचीलापन का मार्ग खोला। पारसंस जैसी भव्य प्रणाली के समक्ष उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा — पहले ठोस, मध्यम-स्तरीय सिद्धान्त बनाइए जिन्हें जाँचा जा सके; फिर बड़े सिद्धान्तों की ओर बढ़िए। उनके विचार — manifest/latent functions, middle-range theory, functional alternatives, Matthew effect — आज भी समाजशास्त्रीय अध्यन और नीति-चिंतन के लिए अमूल्य उपकरण हैं।
रॉबर्ट के. मर्टन की प्रमुख कृतियाँ
| प्रकाशन वर्ष (Year) | कृति का नाम (Title) | मुख्य अवधारणाएँ/सिद्धांत |
| 1938 | Social Structure and Anomie | तनाव सिद्धांत (Strain Theory), अपवंचना के प्रकार (Modes of Deviance) |
| 1938 | Science, Technology and Society in Seventeenth Century England | विज्ञान का समाजशास्त्र (Sociology of Science), मर्टन थीसिस (Merton Thesis) |
| 1949 | Social Theory and Social Structure (विस्तारित संस्करण 1957 और 1968) | यह उनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है। इसमें मध्य-स्तरीय सिद्धांत (Middle-Range Theories), प्रकट एवं अप्रकट प्रकार्य (Manifest and Latent Functions), और तनाव सिद्धांत का विस्तार से वर्णन है। |
| 1965 | On the Shoulders of Giants: A Shandean Postscript | ज्ञान के संचयी स्वभाव पर एक निबंध। |
| 1967 | On Theoretical Sociology | समाजशास्त्रीय सिद्धांत पर निबंधों का संग्रह। |
| 1973 | The Sociology of Science: Theoretical and Empirical Investigations | विज्ञान की सामाजिक संरचना और मूल्यों पर उनका निर्णायक कार्य। |
