
भारत का संविधान केवल क़ानूनी प्रावधानों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह एक जीवंत दस्तावेज़ है जो नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों के साथ-साथ सत्ता के संतुलन की गारंटी भी देता है। परंतु जब संसद की संशोधन शक्ति और नागरिकों के अधिकार आमने-सामने आए, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ा — और वहीं से जन्म हुआ मूल संरचना सिद्धांत का।
संपत्ति का अधिकार जैसे विवादास्पद मुद्दे से लेकर केशवानंद भारती केस जैसी ऐतिहासिक सुनवाई तक, भारत में संविधान संशोधनों और न्यायिक व्याख्याओं की श्रृंखला ने यह सिद्ध कर दिया कि लोकतंत्र की नींव कुछ अडिग सिद्धांतों पर टिकी है। इस लेख में हम उन सात निर्णायक पड़ावों की चर्चा करेंगे जिन्होंने भारतीय संविधान को दिशा दी और यह सुनिश्चित किया कि नागरिकों के अधिकार केवल काग़ज़ पर ही नहीं, व्यवहार में भी सुरक्षित रहें।
“संपत्ति का अधिकार : अधिकार से वैधानिकता तक”
1. संपत्ति का अधिकार (Right to Property)
मौलिक अधिकार के रूप में स्थिति:
- भारतीय संविधान के प्रारंभिक स्वरूप में, अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के अंतर्गत संपत्ति का अधिकार एक मौलिक अधिकार था।
- इसका उद्देश्य था कि हर नागरिक को अपनी संपत्ति अर्जित करने, रखने और बेचने की स्वतंत्रता हो।
राज्य की बाधा और भूमि सुधार:
- आज़ादी के बाद सरकार ने भूमि सुधार कानून लागू किए ताकि ज़मींदारी प्रथा समाप्त हो सके।
- इन कानूनों को न्यायपालिका में चुनौती दी गई क्योंकि वे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रहे थे।
महत्वपूर्ण मामले:
(i) शंकरि प्रसाद बनाम भारत संघ (1951)
संसद को मौलिक अधिकारों में संशोधन की शक्ति दी गई।
(ii) गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों को नहीं छू सकती।
(iii) 24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1971)
संसद को यह शक्ति वापस दी गई कि वह मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है।
केशवानंद भारती केस (1973): मूल संरचना की सुरक्षा
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान की मूल संरचना को नहीं बदल सकती।
- यानि कि, अगर कोई संशोधन नागरिकों के मौलिक अधिकारों की आत्मा को नष्ट करता है, तो वह असंवैधानिक होगा।
44वाँ संविधान संशोधन (1978): संपत्ति का अधिकार हटाया गया
- संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया
- अब यह एक वैधानिक अधिकार है, जो भारतीय संविधान के भाग XII के अनुच्छेद 300A के तहत संरक्षित है।
- इसका अर्थ: सरकार बिना उचित प्रक्रिया के आपकी संपत्ति नहीं ले सकती, लेकिन यह अब सुप्रीम कोर्ट में मौलिक अधिकार के रूप में चुनौती नहीं दी जा सकती
मूल संरचना सिद्धांत से क्या सुरक्षा मिली?
- भले ही संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं रहा, लेकिन:
- इस बदलाव की संवैधानिक वैधता केशवानंद केस और बाद में मामलों में मूल संरचना सिद्धांत के जरिए परखी गई।
- यह सुनिश्चित किया गया कि न्याय, स्वतंत्रता और कानूनी प्रक्रिया — जो संविधान की मूल संरचना हैं — उन्हें कोई भी संशोधन नष्ट न कर सके।
संपत्ति का अधिकार, भले ही आज मौलिक अधिकार न रहा हो, लेकिन मूल संरचना सिद्धांत ने यह सुनिश्चित किया कि नागरिकों के अन्य मौलिक अधिकारों की रक्षा की जा सके और सरकार अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करे। यह संतुलन ही भारतीय संविधान की गहराई और स्थिरता को दर्शाता है।
2. शंकरि प्रसाद बनाम भारत संघ (1951)
मामले की पृष्ठभूमि:
- आज़ादी के बाद केंद्र सरकार ने जमींदारी उन्मूलन जैसे भूमि सुधार कानून बनाए।
- इन सुधारों को संविधान के अनुच्छेद 31 (संपत्ति का अधिकार) का उल्लंघन बताते हुए न्यायालय में चुनौती दी गई।
सवाल यह उठा कि क्या संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है?
मुख्य मुद्दा:
क्या संसद को संविधान के भाग III (मौलिक अधिकारों) में संशोधन करने का अधिकार है?
संसद की दलील:
- संसद ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 368 उसे संविधान में संशोधन की पूर्ण शक्ति देता है, जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
निर्णय:
- सुप्रीम कोर्ट ने संसद की बात को स्वीकार किया।
- कहा कि संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने की पूर्ण शक्ति है, जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि
- “संविधान में संशोधन ‘कानून’ (law) नहीं है, इसलिए यह अनुच्छेद 13(2) के दायरे में नहीं आता।”
प्रभाव और महत्व:
- यह फैसला संसद को पूर्ण स्वतंत्रता देता था कि वह मौलिक अधिकारों को संशोधित या हटा भी सकती है।
- इससे मौलिक अधिकारों की संवैधानिक सुरक्षा कमजोर हो गई थी।
बाद में क्या हुआ?
- इस निर्णय के कारण संसद ने कई संशोधन करके भूमि सुधारों को मौलिक अधिकारों से बचाने का प्रयास किया।
- परन्तु, यह निर्णय आलोचना का विषय बना और अंततः इसे गोलकनाथ केस (1967) में पलट दिया गया।
शंकरि प्रसाद केस ने संसद को मौलिक अधिकारों में असीमित हस्तक्षेप की शक्ति दे दी थी, जिससे संविधान के मूल ढांचे की रक्षा संकट में पड़ सकती थी। यह निर्णय मूल संरचना सिद्धांत की अनुपस्थिति का उदाहरण था और आगे चलकर इस सोच में बड़ा परिवर्तन हुआ।
3.गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967)
मामले की पृष्ठभूमि:
- गोलकनाथ परिवार की कुछ ज़मीनें पंजाब सरकार ने भूमि सुधार अधिनियम के अंतर्गत अधिग्रहित कर ली थीं।
- परिवार ने दावा किया कि यह कार्य संविधान के मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 19(1)(f) और 31) का उल्लंघन है।
सवाल यह उठा कि क्या संसद को मौलिक अधिकारों को संशोधित करने का अधिकार है?
मुख्य मुद्दा:
क्या संसद संविधान के भाग III (मौलिक अधिकारों) में संशोधन कर सकती है?
पिछला संदर्भ:
- शंकरि प्रसाद (1951) और सजजन सिंह (1965) मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद ऐसा कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
निर्णय (6:5 बहुमत से):
- संसद को मौलिक अधिकारों में संशोधन की शक्ति नहीं है।
- संविधान संशोधन भी ‘कानून (law)’ की श्रेणी में आता है, इसलिए वह अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत आता है।
- संसद ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती जो मौलिक अधिकारों का हनन करता हो।
Prospective Overruling सिद्धांत:
- कोर्ट ने निर्णय में पहली बार Prospective Overruling का सिद्धांत अपनाया।
- मतलब: इस निर्णय का भविष्य में प्रभाव होगा, पूर्ववर्ती संशोधनों पर लागू नहीं होगा।
प्रभाव और महत्व:
- संसद की शक्ति सीमित हो गई।
- मौलिक अधिकारों को पूर्ण सुरक्षा प्राप्त हुई।
- इस फैसले ने कार्यपालिका और विधायिका की शक्तियों पर न्यायपालिका का संतुलन स्थापित किया।
संसद की प्रतिक्रिया:
- इस निर्णय के बाद संसद ने 24वां संविधान संशोधन अधिनियम (1971) पारित किया
- जिसमें कहा गया कि संविधान संशोधन ‘कानून’ नहीं है, इसलिए अनुच्छेद 13 के अंतर्गत नहीं आता।
गोलकनाथ केस ने यह संदेश दिया कि मौलिक अधिकार अटल हैं, और संसद इन्हें संशोधित नहीं कर सकती।
यह निर्णय संविधान की आत्मा की रक्षा की दिशा में एक बड़ा कदम था, जिसने आगे चलकर केशवानंद भारती केस (1973) की नींव रखी।
4. 24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1971)
पृष्ठभूमि:
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने संसद की यह शक्ति नकार दी थी कि वह मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है।
- इस निर्णय से भूमि सुधार व अन्य सामाजिक-आर्थिक योजनाओं पर प्रभाव पड़ा।
- इसके जवाब में संसद ने 24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 पारित किया।
मुख्य उद्देश्य:
- संसद की संविधान संशोधन शक्ति को फिर से स्पष्ट और मज़बूत करना
- यह सुनिश्चित करना कि संसद मौलिक अधिकारों को भी संशोधित कर सके
संशोधन की प्रमुख विशेषताएँ:
अनुच्छेद 13 में संशोधन:
- संविधान संशोधन को ‘कानून’ की परिभाषा से बाहर कर दिया गया।
- मतलब: अब अनुच्छेद 13(2) संसद को मौलिक अधिकारों के विरुद्ध संशोधन करने से नहीं रोक सकता।
अनुच्छेद 368 में संशोधन:
- यह स्पष्ट किया गया कि संसद को संविधान के किसी भी भाग, जिसमें भाग III (मौलिक अधिकार) भी शामिल है, में संशोधन का अधिकार है।
- संशोधन प्रक्रिया की अभिव्यक्ति और विधि भी जोड़ी गई।
संसद की शक्ति फिर से बहाल:
- इस संशोधन के ज़रिए संसद ने स्वयं को यह शक्ति दी कि वह गोलकनाथ फैसले को निष्क्रिय कर सके
- अब संसद के पास फिर से मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की वैधानिक शक्ति थी
न्यायिक प्रतिक्रिया – केशवानंद भारती केस (1973):
- इस संशोधन की संवैधानिक वैधता को केशवानंद भारती केस में चुनौती दी गई।
- कोर्ट ने माना कि संसद संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान की मूल संरचना को नहीं बदल सकती।
- इस फैसले ने 24वें संशोधन की सीमाएं तय कर दीं।
24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम संसद की शक्ति को बहाल करने का प्रयास था, जिससे वह मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप कर सके।
हालांकि, बाद में मूल संरचना सिद्धांत ने इस शक्ति को संवैधानिक सीमाओं में बाँध दिया और सुनिश्चित किया कि संसद संविधान की आत्मा को नष्ट न कर सके।
5. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)
मामले की पृष्ठभूमि:
- केरल सरकार ने भूमि सुधार कानून के तहत एडनिर मठ (केशवानंद भारती द्वारा संचालित) की कुछ संपत्ति अधिग्रहित की।
- इस पर मठ के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ने संविधान के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का हवाला देते हुए याचिका दायर की।
- इसी दौरान संसद ने कई संशोधन — जैसे 24वां, 25वां और 29वां संविधान संशोधन पारित किए, जो संपत्ति और नीति निर्देशक तत्वों से संबंधित थे।
- यह केस संसद की संशोधन शक्ति की सीमा और संविधान की संवैधानिक आत्मा पर केंद्रित हो गया।
मुख्य मुद्दा:
क्या संसद संविधान के किसी भी भाग — विशेषकर मौलिक अधिकारों या मूल तत्वों — को पूरी तरह बदल सकती है?
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय:
निर्णय (13 न्यायाधीशों की पीठ, 7:6 बहुमत से):
- संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति है, लेकिन यह शक्ति असीमित नहीं है।
- संसद संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) को नहीं बदल सकती।
- यदि कोई संशोधन संविधान की मूल संरचना को नुकसान पहुँचाता है, तो वह असंवैधानिक और अमान्य होगा।
मूल संरचना के तत्व (Basic Structure Elements):
हालाँकि कोर्ट ने कोई ठोस सूची नहीं दी, लेकिन निम्नलिखित तत्वों को मूल संरचना का भाग माना गया:
- संविधान की सर्वोच्चता
- कानून का शासन (Rule of Law)
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- मौलिक अधिकार
- धर्मनिरपेक्षता
- लोकतंत्र
- शक्तियों का पृथक्करण
- न्याय तक पहुँचने का अधिकार
- संघीय ढाँचा आदि
इस निर्णय का महत्व:
- यह फैसला संविधान की सुरक्षा की अंतिम ढाल बना।
- संसद की शक्ति को संवैधानिक सीमाओं में बाँध दिया गया।
- यह निर्णय भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे को स्थायित्व और संतुलन प्रदान करता है।
सकारात्मक प्रभाव:
- अब संसद नागरिकों के मौलिक अधिकारों को नष्ट नहीं कर सकती।
- सरकार की नीतियाँ भी संविधान की मूल भावना के अनुरूप ही बनानी होंगी।
- न्यायपालिका को संविधान की आत्मा की रक्षा का अधिकार मिला।
केशवानंद भारती मामला भारतीय संवैधानिक इतिहास का टर्निंग पॉइंट था।
इसने यह सिद्ध किया कि संविधान को संशोधित तो किया जा सकता है, लेकिन उसकी आत्मा और मूल ढाँचा अटल हैं।
यह निर्णय आज भी भारत के लोकतंत्र और नागरिकों के अधिकारों की मजबूत संवैधानिक ढाल के रूप में खड़ा है।
6. भारतीय संविधान में मूल संरचना सिद्धांत
मूल संरचना सिद्धांत (Basic Structure Doctrine) भारतीय संविधान का वह सिद्धांत है जो यह सुनिश्चित करता है कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन संविधान की आत्मा या मूल सिद्धांतों को नष्ट नहीं कर सकती।
यह सिद्धांत पहली बार केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिपादित किया गया।
मूल उद्देश्य:
- संसद की संशोधन शक्ति की सीमाएं तय करना ताकि संविधान का लोकतांत्रिक, न्यायपूर्ण और स्वतंत्र चरित्र सुरक्षित रह सके।
मूल संरचना में क्या-क्या आता है?
सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर विभिन्न निर्णयों में मूल संरचना के घटक बताए हैं। कुछ प्रमुख तत्व:
- संविधान की सर्वोच्चता
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- कानून का शासन (Rule of Law)
- मौलिक अधिकार
- शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers)
- धर्मनिरपेक्षता
- लोकतंत्र
- न्याय तक पहुँचने का अधिकार
- संघीय ढाँचा
- स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव
- सामाजिक-आर्थिक न्याय
- प्रस्तावना के सिद्धांत (Preamble values)
क्यों ज़रूरी था यह सिद्धांत?
- संविधान को लचीला (Flexible) बनाने के प्रयास में यह जरूरी था कि संसद की शक्ति पर संवैधानिक सीमा भी हो।
- बिना इस सिद्धांत के, संसद मौलिक अधिकार, लोकतंत्र, या न्यायिक स्वतंत्रता को भी हटा सकती थी।
न्यायपालिका की भूमिका:
सुप्रीम कोर्ट ने अपने विवेक से यह सिद्धांत स्थापित किया कि
- संविधान में संशोधन की शक्ति अनंत नहीं है — यह शक्ति भी संविधान की सीमाओं के अधीन है।
कोर्ट यह देख सकती है कि कोई संशोधन संविधान की मूल संरचना को तो नहीं तोड़ता।
महत्वपूर्ण फैसले जहाँ इसे लागू किया गया:
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980)
➤ संशोधन असंवैधानिक घोषित किया क्योंकि वह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खत्म कर रहा था। - राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी केस (1975)
➤ चुनावी प्रक्रिया और न्याय तक पहुँच को मूल संरचना माना गया। - एल. चंद्रकुमार केस (1997)
➤ न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) को मूल संरचना का हिस्सा माना गया।
आज के संदर्भ में प्रासंगिकता:
- यह सिद्धांत आज भी संविधान के संरक्षण की अंतिम दीवार है।
- यह सुनिश्चित करता है कि सरकार अपनी बहुमत की ताकत का दुरुपयोग न कर सके।
- यह सिद्धांत संविधान को स्थायित्व और विश्वास देता है।
मूल संरचना सिद्धांत भारतीय संविधान का संवैधानिक सुरक्षा कवच है।
यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी सरकार संविधान की आत्मा को न बदल सके।
यह न केवल न्यायपालिका की दूरदर्शिता को दर्शाता है, बल्कि यह भी सिद्ध करता है कि भारत का संविधान जीवित है — लचीला भी और मज़बूत भी।
7. मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980)
पृष्ठभूमि:
- मिनर्वा मिल्स (Minerva Mills), एक निजी कपड़ा मिल थी, जिसे सरकार ने राष्ट्रीयकरण (Nationalisation) के तहत अधिग्रहित कर लिया।
- कंपनी के मालिकों ने इस अधिग्रहण को संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 19 (व्यवसाय की स्वतंत्रता) का उल्लंघन बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
मुख्य मुद्दा:
क्या 42वें संविधान संशोधन (1976) की वैधता बनी रह सकती है?
क्या संसद को असीमित संशोधन शक्ति दी जा सकती है, जो न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) को भी हटा दे?
संविधान (42वां संशोधन), 1976 के माध्यम से इसमें उपबंध (4) और (5) जोड़े गए:
अनुच्छेद 368 भारतीय संविधान का वह प्रावधान है जो संसद को संविधान संशोधन का अधिकार देता है।
उपबंध (4):
यह कहा गया कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत किया गया कोई भी संशोधन न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
अर्थात, संविधान संशोधन न्यायिक समीक्षा से बाहर है।
उपबंध (5):
इसमें कहा गया कि संसद की संशोधन शक्ति असीमित है, और वह संविधान के किसी भी भाग को संशोधित कर सकती है।
यही दोनों उपबंध थे जिनकी वैधता को मिनर्वा मिल्स केस में चुनौती दी गई।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय:
निर्णय (5 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा):
- अनुच्छेद 368 (4) और (5) को असंवैधानिक घोषित किया गया।
कहा गया कि:
“न्यायिक समीक्षा और मौलिक अधिकार संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं। इन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता।”
संसद को यह अधिकार नहीं है कि वह संविधान की आत्मा को बदल दे या अपनी शक्तियों को निरंकुश बना ले।
संविधान की “आत्मा” का अर्थ है — उसका मूल ढांचा (Basic Structure)।
इसमें वे सिद्धांत और मूल्य आते हैं जो संविधान को पहचान देते हैं, जैसे:
- संप्रभुता (Sovereignty)
- लोकतंत्र (Democracy)
- न्यायिक समीक्षा (Judicial Review)
- कानून का शासन (Rule of Law)
- न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता
- संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of Constitution)
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Independence of Judiciary)
निर्णय के प्रमुख बिंदु:
- मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक सिद्धांतों में संतुलन जरूरी है
- संसद की संशोधन शक्ति न्यायपालिका से ऊपर नहीं हो सकती
- लोकतंत्र और कानून का शासन — बेसिक स्ट्रक्चर के अटूट स्तंभ हैं
प्रभाव और महत्व:
- यह फैसला एक सीमारेखा बन गया, जहाँ संसद की शक्तियों को नियंत्रित किया गया।
- सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्ध कर दिया कि कोई भी संस्था — यहाँ तक कि संसद भी — संविधान से ऊपर नहीं है।
- इससे मूल संरचना सिद्धांत को व्यवहारिक रूप से लागू करने का आधार मिला।
मिनर्वा मिल्स केस ने भारतीय लोकतंत्र को तानाशाही प्रवृत्तियों से बचाने का काम किया।
यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि संविधान की आत्मा — न्याय, स्वतंत्रता, समानता और न्यायिक नियंत्रण — अटल है।
मूल संरचना सिद्धांत अब केवल एक न्यायिक विचार नहीं, बल्कि भारत के संविधान का जीवित सुरक्षा कवच बन चुका है।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान समय के साथ न केवल विकसित हुआ है, बल्कि उसने हर बार सत्ता और अधिकार के बीच संतुलन बनाए रखने की अपनी असाधारण क्षमता को सिद्ध किया है। संपत्ति के अधिकार से शुरू हुई बहस ने हमें यह सिखाया कि मौलिक अधिकार केवल लिखित शब्द नहीं हैं — वे नागरिकों की गरिमा और स्वतंत्रता के वास्तविक प्रहरी हैं।
केशवानंद भारती और मिनर्वा मिल्स जैसे ऐतिहासिक निर्णयों ने यह सुनिश्चित किया कि संसद की संशोधन शक्ति, लोकतंत्र के मूल स्तंभों को कभी न तोड़ सके। संविधान की मूल संरचना सिद्धांत ने न सिर्फ न्यायपालिका को एक संरक्षक की भूमिका दी, बल्कि यह भी तय किया कि किसी भी राजनीतिक सत्ता को संविधान की आत्मा के साथ खिलवाड़ करने की छूट नहीं होगी।
आज, जब लोकतांत्रिक संस्थाएँ विभिन्न दबावों का सामना कर रही हैं, मूल संरचना सिद्धांत भारतीय गणराज्य की एक ऐसी चट्टान है, जिस पर संविधान की स्थिरता और नागरिकों की स्वतंत्रता टिकी हुई है। यह न केवल एक कानूनी अवधारणा है, बल्कि भारत के संवैधानिक जीवन का नैतिक और लोकतांत्रिक विवेक भी है।
अभ्यास के प्रश्न (GS Paper-II):
Q1.
“मूल संरचना सिद्धांत भारतीय संविधान की आत्मा की रक्षा करता है।” — इस कथन की विवेचना कीजिए। (250 शब्द)
Q2.
42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए अनुच्छेद 368(4) और 368(5) की आलोचना करते हुए बताइए कि क्यों उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित किया। (250 शब्द)
Q3.
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) तथा मिनर्वा मिल्स केस (1980) ने संविधान संशोधन की शक्ति पर क्या सीमाएँ निर्धारित कीं? व्याख्या कीजिए। (250 शब्द)
SCO क्या है? स्थापना, 10 सदस्य देश, उद्देश्य, प्रभाव, चुनौतियाँ और भारत की भूमिका